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स॒मा॒नो अध्वा॒ स्वस्रो॑रन॒न्तस्तम॒न्यान्या॑ चरतो दे॒वशि॑ष्टे। न मे॑थेते॒ न त॑स्थतुः सु॒मेके॒ नक्तो॒षासा॒ सम॑नसा॒ विरू॑पे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

samāno adhvā svasror anantas tam anyānyā carato devaśiṣṭe | na methete na tasthatuḥ sumeke naktoṣāsā samanasā virūpe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒मा॒नः। अध्वा॑। स्वस्रोः॑। अ॒न॒न्तः। तम्। अ॒न्याऽअ॑न्या। च॒र॒तः॒। दे॒वशि॑ष्टे॒ इति॑ दे॒वऽशि॑ष्टे। न। मे॒थे॒ते॒ इति॑। न। त॒स्थ॒तुः॒। सु॒मेके॒ इति॑ सु॒ऽमेके॑। नक्तो॒षासा॑। सऽम॑नसा। विरू॑पे॒ इति॒ विऽरू॑पे ॥ १.११३.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:113» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:1» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जिन (स्वस्रोः) बहिनियों के समान वर्त्ताव रखनेवाली रात्री और प्रभातवेलाओं का (अनन्तः) अर्थात् सीमारहित आकाश (समानः) तुल्य (अध्वा) मार्ग है जो (देवशिष्टे) परमेश्वर के शासन अर्थात् यथावत् नियम को प्राप्त (विरूपे) विरुद्धरूप (समनसा) तथा समान चित्तवाले मित्रों के तुल्य वर्त्तमान (सुमेके) और नियम में छोड़ी हुई (नक्तोषसा) रात्रि और प्रभात वेला (तम्) उस अपने नियम को (अन्यान्या) अलग-अलग (चरतः) प्राप्त होतीं और वे कदाचित् (न) नहीं (मेथेते) नष्ट होतीं और (न, तस्थतुः) न ठहरती हैं, उनको तुम लोग यथावत् जानो ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विरुद्ध स्वरूपवाले मित्र लोग इस निःसीम अनन्त आकाश में न्यायाधीश के नियम के साथ ही नित्य वर्त्तते हैं, वैसे रात्रि और दिन परमेश्वर के नियम से नियत होकर वर्त्तते हैं ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तदेवाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या ययोः स्वस्रोरनन्तः समानोऽध्वास्ति ये देवशिष्टे विरूपे समनसेव वर्त्तमाने सुमेके नक्तोषसा तमन्यान्या चरतस्ते कदाचिन्न मेथेते न च तस्थतुस्ते यूयं यथावज्जानीत ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (समानः) तुल्यः (अध्वा) मार्गः (स्वस्रोः) भगिनीवद्वर्त्तमानयोः (अनन्तः) अविद्यमानान्त आकाशः (तम्) (अन्यान्या) परस्परं वर्त्तमाने (चरतः) गच्छतः (देवशिष्टे) देवस्य जगदीश्वरस्य शासनं नियमं प्राप्ते (न) (निषेधे) (मेथेते) हिंस्तः (न) (तस्थतुः) तिष्ठतः (सुमेके) नियमे निक्षिप्ते (नक्तोषसा) रात्र्युषसौ (समनसा) समानं मनो विज्ञानं ययोस्ताविव (विरूपे) विरुद्धस्वरूपे ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विरुद्धस्वरूपौ सखायावस्मिन्नमर्यादेऽनन्ताकाशे न्यायाधीशनियमितौ सहैव नित्यं चरतस्तथा रात्र्युषसौ परमेश्वरनियमनियते भूत्वा वर्त्तेते ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विरुद्ध स्वरूपाचे व समान चित्ताचे मित्र या अनंत आकाशात न्यायाधीशाच्या नियमानेच सदैव वागतात तसे रात्र व दिवस परमेश्वराच्या नियमात राहून वागतात. ॥ ३ ॥